खुशकिस्मत
"एक लड़का शहर में,
न घर ना ठिकाना,
वो सड़कों पे रहता,
वहीं था वो खाना।
और जगती वो आँखें
आसमानों के नीचे
वो टिम-टिम निगाहें
क्यों तारों को खीचें !
एक लड़का शहर में,
न घर ने ठिकाना..."
कितने खुशकिस्मत होते है ना वे लोग जिनके घर होते हैं। ऐसा घर जिसे वो अपना कह सके, जहाँ लौटने पर संपूर्णता का आभास हो!
एक प्यारा-सा परिवार,
एक अक्षुण्ण-सा आँगन,
एक पथिक का सहारा ...
वह नन्हा सा बालक अपने सपनों की सैर करता ही कि एक अजीब सी कर्कश ध्वनि ने उसका मोह भंग कर दिया।
"ए हीरो !! तेरे को इस लिए नहीं रखी मैं... अक्खा टाईम तू आसमान ताकेगा हाँ,
तो मेरा कमाई कौन करेगा रे।
कितना कमाया तू रे आज ।"
"वो... वो 10 रुपए.. कमाए - काकी।"
इतना सुनकर उस क्रूर, बूढ़ी औरत ने उत्तेजित होकर बालक को बहुत मारा इतना मारा, इतना मारा कि उसका चेहरा लाल सा पड़ गया था। इससे भी जब उसका मन न भरा तो दहकते हुक्के में धर डाला हाथ !!!
इतनी विषमता के बावजूद भी उस बालक ने चुप रहना सीख लिया था।
तभी ट्रैफिक लाइट भी लाल हुई और वाहनों का सैलाब कुछ क्षण के लिए थम गया। वाहनों का धधकता ऊष्म पिघलाती-सी गर्मी में प्राणहानि था ।
बच्चों की टोली, कभी कलम, कभी कमल लेकर गाड़ियों के द्वार खटखटाती - पर हर तरफ़ से दुत्कार ही हाथ लगता। जब बत्ती हरी हो जाती, वो अनकही दौड़ फिर शुरू हो जाती।
लड़का प्रवृति से कवि था। न जाने कैसे इतनी सुंदर कविताएँ लिखता ! और सहेज कर उन्हें अपने लोहे की छोटी सी अटैची में बंद कर देता। एक अटैची ही तो थी जिसे वो अपना कह सकता है था। एक बार बत्ती पर एक भले इंसान ने उससे पाँच गुलाब खरीदे और सौ रुपए दे गया। काकी को 50 देकर, अन्य चुराकर उसने अपनी अटैची के लिए... एक ताला खरीदा ...!
"एक लड़का शहर में,
न घर न ठिकाना,
तारों का आशियाना।
अटैची में उसके
तारों का आशियाना।
एक लड़का शहर में.....”
एक दिन की बात है, उस बालक ने अपने जीवन का सबसे निर्मम दृश्य देखा।
एक संपन्न सा व्यक्ति, बड़ी सी गाड़ी में आता है, और खूब सारी अटैचियाँ सड़क पर फेक देता है। साथ में उसकी बूढ़ी माँ भी होती !
"बेटा" उस असहाय वृद्धा ने रोते हुए कहा, "ऐसा मत कर गोलू, मैं तुम सब के बिना कैसे रह पाऊँगी ?? बेटा, ले जा बेटा, यहाँ अच्छा नहीं लगता !"
माँ का ख्याल तो बहुत दूर की बात थी, उस पाषाण हृदय में न लज्जा थी, न ग्लानि !
गाड़ी में बैठा और चला गया।
न जाने वो कैसे लोग होते हैं जो अपने माँ-बाबा को वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं। और तब भी स्वयं को संपन्न, संपूर्ण और सफल मानते हैं।
"क्या विदेश की एक नौकरी पा लेने से सारा जहान कदमों में आ जाता है?!"
बड़े अचरज से उस बालक ने इस सवाल को सोचा।
ऐसी कहानियाँ वह आए दिन देखा करता।
पर आज के उस हृदयविदारक दृश्य ने उसके बालमन को झकझोर दिया था।
उसका ध्यान बार-बार उन अटैचियों पर जाता, मानों उनमें उसके लिए कुछ खिलौने हो।
बड़े बिखरे हुए मन से बेसहारा सी उस अम्मा ने रातभर असहनीय विलाप किया, मानो कोई उसके शरीर से प्राण खींच रहा हो।
उस रात वो बालक भी एक झपकी न सोया। बस एकटक अम्मा को देखता रहा।
मानों..., मानों ओस से भरी उन निशब्द आँखों में वह खुद को ढूंढता हो।
भोर भाए, दिन चढ़ा।
और रात के वह टूटे काँच, सूरज की ऊष्मा में चमक रहे थे....।
"एक लड़का शहर में
अकेला अकेला,
मिला एक साथी
अकेला अकेला।
वो बूढ़ी सी अम्मा
बिलखती थी रोती,
के हाथों से उसके
अटैची थी छोटी ॥"
"अम्मा, यह लो खाना।
स्वादिष्ट है, खा लो, तुमने कल रात से कुछ नहीं खाया ना?"
ममता से भरी आँखों ने उस बच्चे की ओर देखा।
"अम्मा!
खा ले ना,
बड़ी मुश्किल से लाया हूँ।
किसी को बताना मत!"
(यह कहकर वह दौड़कर चला गया)
आज फिर बत्ती पर एक भले इंसान ने उसकी मदद की थी।
वो लड़का रोज अम्मा के पास जाता और ढेर सारी बातें करता।
अम्मा ने भी उन मासूम आँखों में अपना नया संसार ढूंढा था।
"अम्मा, जिनके पास घर होता है, वो कितने ख़ुशकिस्मत होते है ना !"
अम्मा ने कुछ याद करते हुए, नन्हे को ज़ोर से गले लगा लिया।
"चल अम्मा, मैं और तुम एक घर बनाते हैं। छोटा सा प्यारा सा । हाँ ! मज़ा आएगा।"
अम्मा अचानक कुछ क्षण तो सोच में पड़ गई कि यह क्या कह रहा है। घर बना लो ? घर बनाना तो सपना होता है? उसमें तो हजारो लग जाएंगे। बचपना बस !
कहने ही वाली थी कि इन बातों में कोई तुक नहीं
पर उन प्यारी, सुंदर आँखों में चमकते उस सपने ने हर निराशा का विनाश कर दिया।
"मुमकिन तो है, पर कुछ पैसे चाहिए, नन्हे!"
"अम्मा, वो सब हो जाएगा, तुम पहले खाना खाओ।"
अम्मा के चेहरे पर एक संतोषपूर्ण मुस्कान थी। उसने बड़े प्यार से पहले नन्हे को पेट भर खिलाया !
कभी कभी हमें अपने सौभाग्य पर विश्वास नहीं होता। क्योंकि न हम उसका इंतजार कर रहे होते हैं और न ही उम्मीद!
भगवान जी की पटकथा से चुपके से फिसलकर, वह कब हमारी जीवनी बन जाती है। पता ही नहीं चलता।
"अम्मा, जो मैं एक बात कहूँ तो डाँटेगी तो नहीं?"
"ना बेटा, बोल"
"क्या हर दादी और नानी को सिलाई बुनाई आता है?"
अम्मा ने बड़े दिनों बाद ज़ोर का ठहाका लगाया और हँसते हुए बोली - "नन्हे, यह तुमसे किसने कहा, हाँ ?"
"अरे! मैंने अपने पुस्तक के एक रंगीन चित्र में देखा था।
"तुम स्कूल जाते हो?"
"अब नहीं अम्मा। जो फीस के पैसे न थे, तो स्कूल ने निकाल दिया।
इसे छोड़ो, बताओ ना। "
"हाँ बेटा, आता तो है।"
"अम्मा, तुम सिलाई करके पैसे कमाना । और मैं बस स्टैण्ड, स्टेशन साफ कर लिया करूँगा!"
दोनों ने एक दूसरी को प्रेम भरा आंलिंगन किया।
बेसहारा चल रही उन अभागी साँसों के पास, अब जीने की वजह थी।
उन कदमों में फिर से उठकर दौड़ने की उमंग थी।
इस आत्मशक्ति ने उनसे मेहनत भी करवाया और मेहनत का फल भी दिया। आज दीपावली के दिन, यह छोटी सी कुटिया मानो अवधपुरी सी चमक रही थो। उमंग और घृत से प्रज्वलित हर दीप ने उनके जीवन से हर तमस को बुझा दिया।
घर उनका छोटा था, पर संपन्न और खुशहाल!
नई उत्साह के रंगों ने बेजान पड़े पुराने दिलों को सदाबहार कर दिया।
अटैचियाँ खुल गयी।
ताले टूट गए !
आज घर में अम्मा ने किशमिश वाली खीर बनाई है।
"एक लड़का शहर में,
ढूंढता आशियाना,
मिली बूढ़ी अम्मा,
बना आशियाना,
सजाया दीवाली में
दीयों से घर को,
के रोशन सा करता
वो अपने शहर को,
के जलते है दीपक,
चमकते है तारे,
के रौशन करे तो
शहर को वो सरे।
एक लड़का शहर में, है उसका ठिकाना,
है उसका भी घर अब, है उसका आशियाना।
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